चुनाव के पास आते ही हर समाज दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. किंतु राज्य सरकारें कभी जल्दबाजी ओर कभी दिखावे के लिए अपने निर्णय कर रही हैं, जिससे आरक्षण की जटिल समस्या अधिक उलझती जा रही है.
मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे के माथे पर गुलाल लगाकर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने सभी मांगें पूरी करने का लिखित आश्वासन तो दे दिया, मगर सवाल आज भी वहीं और वैसे ही है, जहां से उनकी शुरुआत हुई थी. फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में विधानसभा का विशेष सत्र होने जा रहा है, जिसमें आरक्षण की मांगों को कानूनी जामा पहनाया जाएगा. किंतु समूचे परिदृश्य में कोई भी पूरी तौर पर आश्वस्त नहीं है. यहां तक कि जरांगे भी क्रमिक भूख हड़ताल को जारी रखे हैं और आगे भी आंदोलन करने के लिए तैयार हैं. वहीं दूसरी तरफ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एकजुट होकर आंदोलन करने जा रहा है, क्योंकि उसे लग रहा है कि कहीं न कहीं मराठा आरक्षण से उसका हक मारा जाएगा. आखिर बार-बार नई उलझन और हर बार उसे नए
प्रकार से सुलझाने का सिलसिला कब तक चलेगा? चीते साल अगस्त माह से मराठवाड़ा में कुनबी समाज को आरक्षण देने की मांग को लेकर अनशन पर बैठे जरांगे ने जालना जिले की घनसावंगी तहसील के अंतरवाली सराटी गांव से मुंबई तक का लंबा सफर तय किया. उन्होंने लाठीचार्ज से लेकर फूलों की वर्षा तक देखी, एक गैरराजनीतिक व्यक्ति ने महाराष्ट्र सरकार को अपने गांव बुलाकर अपनी मांगों को पूरा कराने से लेकर मुंबई पहुंच कर अपने आंदोलन में मुख्यमंत्री शिंदे को बुलाकर ही दम
लिया, महागठबंधन सरकार ने जरांगे की सभी मांगों को स्वीकार किया और एक अध्यादेश जारी किया. अध्यादेश पर वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ तीन घंटे चर्चा भी हुई. इतना सब कुछ होने के बावजूद मराठा आरक्षण को लेकर संशय बना ही हुआ है. राज्य सरकार कह रही है कि कुनबी के रूप में पहचाने गए 54 लाख व्यक्तियों को कुनबी प्रमाण-पत्र जल्द ही प्रदान किए जाएंगे, फिर भी भरोसा तब तक नहीं हो पाएगा, जब तक कि आरक्षण प्रत्यक्ष रुप में नजर नहीं आएगा.
दूसरी तरफ, जहां धनगर समाज और मुस्लिम भी आरक्षण की मांग करते चले आ रहे हैं तो उन्हें भी कुछ प्रेरणा मराठा आरक्षण आंदोलन दे ही रहा है. धनगर आरक्षण कृति (कार्य) समिति के नेतृत्व में धनगर समाज अनुसूचित जनजाति श्रेणी के तहत आरक्षण की मांग कर रहा है. राज्य की आबादी में धनगरों की हिस्सेदारी नौ प्रतिशत तक है. इस समाज को धनगड के रूप में देश के अनेक भागों में आरक्षण का पात्र माना गया है. महाराष्ट्र में मुद्रण संबंधी त्रुटि के कारण समुदाय को धनगर के रूप में सूचीबद्ध किया गया, परिणामस्वरुप, समुदाय को एसटी श्रेणी से बाहर कर दिया गया. राज्य में
प्रकाश शेंडगे, राष्ट्रीय समाज पक्ष के अध्यक्ष महादेव जानकर और गोपीचंद पडलकर जैसे नेताओं के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर आंदोलन हो चुके हैं पिछले दिनों अहमदनगर जिले में आमरण अनशन को सरकार ने आश्वासन देकर तुड़वाया था. इसी बीच, राज्य मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री छगन
भुजबल जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समाज का नेतृत्व करते हैं, वह अपनी सरकार से नाराज हैं. यह कहते हैं कि मराठा आरक्षण के नाम पर कुछ भी हो रहा है, वह भीड़तंत्र के सामने आत्मसमर्पण से अधिक कुछ नहीं है. उनका मानना है कि मराठा आरक्षण के लिए अध्यादेश ओवीसी और चीजेएनटी (विमुक्त जाति और घुमंतू जनजातियों) के अधिकारों पर अतिक्रमण है और जिसके लिए पिछले दरवाजे से प्रवेश करने के वास्ते लाखों हलफनामे जमा किए जा रहे हैं. वह अब ओबीसी समाज के लिए तीन विकल्प मराठा कोटा पर मसौदा अधिसूचना के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाना, लोगों के बीच जागरूकता पैदा करना और अपने साथ हो रहे अन्याय को लोकतांत्रिक मंचों के माध्यम से उजागर करना बता रहे हैं. यह साफ कर रहा है कि एक
तरफ जहां मराठा समाज में खुशी की लहर है तो वहीं ओबीसी समाज लामबंद होने को तैयार है. कारण साफ है कि सरकार आरक्षण को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है. उसके पास आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं है. हालांकि मुख्यमंत्री शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बार- बार कह रहे हैं कि ओबीसी समाज के आरक्षण को प्रभावित किए बिना वे मराठा समाज को आरक्षण देंगे,
यदि आरक्षण का इतिहास देखा जाए तो संवैधानिक प्रावधानों के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है इसके बाद मंडल आयोग की सिफारिशों को पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा में लागू कर अनेक राज्यों ने ओबीसी समाज को आरक्षण दिया है, जिसे अब कानूनी वैधता प्राप्त हो चुकी है. यदि अब इससे आगे आरक्षण देना है तो सरकार को केवल कानून ही नहीं बनाना होगा, बल्कि अदालत के समक्ष अपने निर्णय को सही साबित करना होगा, यह इतना आसान नहीं होगा, जितना समझा जा रहा है. लिहाजा सरकारें अध्यादेश निकाल रही है. जिससे समाज के निचले स्तर तक लोग खुश हो रहे है, लेकिन अध्यादेश का अदालत में टिक पाना कब और कैसे संभव होगा, इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं है.
अब राजनीतिक दृष्टि से चुनाव समीप हैं और कोई भी दल जनआकांक्षाओं को नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है. जिनमें सामाजिक स्तर पर उठती आरक्षण जैसी कोई मांग बड़े वर्ग को प्रभावित करती है. चुनाव के पास आते ही हर समाज भी दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. किंतु राज्य सरकारें कभी जल्दबाजी और कभी दिखावे के लिए अपने निर्णय कर रही हैं, जिससे आरक्षण की जटिल समस्या अधिक उलझती ही जा रही है. दो समाज में वैमनस्य पैदा होने की स्थितियां तक पैदा होने लगी हैं, ऐसे में राज्य सरकारों से परिपक्व निर्णय की अपेक्षा है. अदालत हो या फिर समाज, यदि सरकार के निर्णय से असहमत होगा तो राजनीतिक और सामाजिक दोनों रुप में स्थितियां अच्छी नहीं होंगी अपने निर्णयों को लेते समय प्रचार से अधिक कानून और संवैधानिक आधार को देखने की ज्यादा जरूरत है. तभी जनता के मन की उलझान और सरकार की राह में खड़ी एक बड़ी अड़चन दूर होगी.
इन सब का एक ही उपाय आज सभी जो आरक्षण के लिए लड़ाइयां लड़ रहे हैं की जाति का जनगणना हो और उसके आधार पर आरक्षण का सटीक बटवारा हो।