तमिलनाडु के पंबन द्वीप को श्रीलंका के मन्नार द्वीप से जोड़ने वाली संरचना (राम सेतु) का संबंध रामायण से है. ऐसा दावा किया जाता है कि पंद्रहवीं सदी तक 48 किमी लंबे इस पुल को पैदल चलकर पार किया जा सकता था.
अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन से पहले आध्यात्मिक यात्रा के अंतिम चरण में प्रधानमंत्री मोदी तमिलनाडु के अरिचल मुनाई पहुंचे. कहा जाता है कि अरिचल मुनाई ही वह स्थान है, जहां रामसेतु का निर्माण हुआ. रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले रामसेतु तक पहुंचने के संकेत समझें तो कह सकते हैं कि निकट भविष्य में मोदी सरकार इस प्राचीन विरासत को सहेजने और इसे अपना स्थान दिलाने का प्रयास कर सकती है.
तमिलनाडु के पंबन द्वीप को श्रीलंका के मन्नार द्वीप से जोड़ने वाली संरचना (राम सेतु) का संबंध रामायण से है. हालांकि इस पर एकमत नहीं है कि यह पुल मनुष्य निर्मित है या प्राकृतिक. पांच हजार ईसा पूर्व रामायण काल के समय और रामसेतु के कार्बन विश्लेषण में एक समानता दिखती है. ऐसा दावा किया जाता है कि 15 वि सदी तक 50 किलोमीटर लंबे इस पुल को पैदल चलकर पार किया जा सकता था. कुछ साक्ष्य ऐसे भी हैं, जो बताते हैं कि सन् 1480 तक पुल पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था. रामसेतु को लेकर एक बड़ा विवाद यूपीए सरकार के समय तब पैदा हुआ था, जब सेतुसमुद्रम परियोजना के अंतर्गत इस पुल के चारों ओर ट्रेजिंग (पानी के नीचे जमा तलछट और मलबे को हटाने के लिए खुदाई करने) का प्रस्ताव दिया गया था. उद्देश्य था कि यहां से बड़े जहाज निकल सकें. लेकिन विवाद उठने पर परियोजना को रोक दिया गया. इसके स्थान पर वर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने रामसेतु की उत्पत्ति का पता लगाने के लिए एक अनुसंधान परियोजना को मंजूरी दी थी. इस परियोजना का प्रस्ताव दिसंबर, 2020 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के तहत पुरातत्व पर केंद्रीय सलाहकार बोर्ड ने दिया था, जिसमें सीएसआईआर-राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, गोवा, (एनआईओ) को यह अनुसंधान करना था. परियोजना का एक उद्देश्य यह जानना था कि रामसेतु के रूप में भारत और श्रीलंका के बीच पत्थरों की श्रृंखला कब और कैसे लगाई गई थी. बताया गया कि इस अध्ययन में भूवैज्ञानिक काल और अन्य सहायक पर्यावरणीय आंकड़ों के लिए पुरातात्विक पुरातन, रेडियोमेट्रिक और थर्मोल्यूमिनस (टीएल) आदि तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है. इसमें विशेष रुप से मूंगा वाले कैल्शियम कार्बोनेट के अध्ययन से संरचना (राम सेतु के निर्माण) के काल का पता लगाया जा रहा है. गौरतलब है कि रेडियोमेट्रिक डेटिंग की मदद से किसी वस्तु की आयु का पता लगाने के लिए रेडियोएक्टिव अशुद्धियों की खोज की जाती है. इस तकनीक में जब किसी वस्तु को गर्म किया जाता है तो टीएल डेटिंग प्रकाश का विश्लेषण करती है. इससे वस्तु की पुरातनता का पता चलता है.यूं तो कहा जा सकता है कि ऐसी परियोजना का एक राजनीतिक महत्व हो सकता है, पर इसका धार्मिक और वैज्ञानिक महत्य कहीं ज्यादा है. हिंदू महाकाव्य ‘रामायण’ के अनुसार वानर सेना ने श्रीराम और उनकी सेना को लंका तक पहुंचाने और माता सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के उद्देश्य से समुद्र पर एक पुल बनाया था. वैसे यह अनायास नहीं है कि आस्था के एक प्रश्न को विज्ञान की मदद से हल करने की कोशिश की जा रही है. हमारे देश में ऐसा अनेक बार हुआ है जब धार्मिक आस्था से जुड़े मसलों
की वैज्ञानिकता को परखने का प्रयास किया गया. वर्ष 2007 में अमेरिका के एक साइंस टीवी चैनल पर एक कार्यक्रम प्रसारित किया गया था, जिसमें अमेरिकी भूवैज्ञानिकों के हवाले से यह दावा करते दिखाया गया था कि भारत के रामेश्वरम के पंबन द्वीप से श्रीलंका के मन्नार द्वीप के बीच समुद्र के भीतर पुल की तरह दिखने वाली यह संरचना मानव निर्मित है. रामसेतु को एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है. अमेरिकी टीवी चैनल पर इस पुल से जुड़े रहस्यों का खुलासा उस चैनल पर प्रसारित होने वाले एक विशेष कार्यक्रम- एंशिएंट लैंड ब्रिज, के तहत किया गया था. विज्ञान से हटकर धार्मिक प्रसंगों की बात करें तो रामसेतु का जिक्र तुलसीकृत रामचरित मानस और वाल्मीकि की रचना- रामायण, दोनों में है. हिंदू आस्था सदियों से इस सेतु (पुल) के अस्तित्व के बारे में और इसे भगवान राम की वानर सेना द्वारा निर्मित किए जाने की पक्षधर है. इस पुल (सेतु) के सिर्फ मिथक होने की बात अमेरिकी स्पेस एजेंसी द्वारा लिए गए चित्रों से खंडित हो चुकी है. एक दावा यह भी है कि 14 दिसंबर, 1966 को नासा के उपग्रह जेमिनी-11 ने स्पेस से एक चित्र लिया था, जिसमें समुद्र के भीतर इस स्थान पर पुल जैसी संरचना दिख रही है. इस चित्र को लिए जाने के 22 साल बाद 1988 में अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन ने भी रामेश्वरम और श्रीलंका के जाफना द्वीप के बीच समुद्र के अंदर मौजूद इस संरचना का पता लगाया था और इसका चित्र लिया था. भारतीय उपग्रहों से भी लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली-सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उससे पता चलता रहा है कि वहां एक पुल था. कई वर्ष पहले इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च ने घोषणा की थी कि वह समुद्र के भीतर अध्ययन के जरिये रामसेतु के रहस्य को सुलझाएगा. इस संस्था को नवंबर, 2017 में अपने अध्ययन पर रिपोर्ट देनी थी लेकिन बताया गया कि यह काम शुरु ही नहीं हुआ. लेकिन बाद में जिस तरह से एएसआई ने इसका बीड़ा उठाया और हाल प्रधानमंत्री ने इस स्थान की यात्रा की, उससे संभव है कि रामसेतु से जुड़े रहस्य उजागर होंगे. और सारे विश्व को पता चल सकेगा की हमारे प्राचीन ग्रंथ कितने पुराने हैं और हमारे धार्मिक ग्रंथ पर लोगों का और सारे विश्व का भरोसा कायम रहेगा और इसमें और शोध होंगे। प्रधानमंत्री ने जो किया इसका एक उद्देश्य होगा कि हमारे जो धार्मिक ग्रंथ है उनसे हम भारतीयों को एक ऊर्जा प्रदान होती है और हमारे लिए प्रेरणा बने एक ही उद्देश्य होगा। हमारे जो ग्रंथ है रामायण महाभारत जो उनमें दिए गए साक्ष्य है जो पृथ्वी धरा पर मौजूद है उन पर गहन अध्ययन होना चाहिए।
रामसेतु की सत्यता और वैज्ञानिक शोध
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